10. प्रेम कविताएं

10. प्रेम कविताएं

 

 प्रे कविताओं का स्थायी विषय रहा है। सुधीर सक्सेना की कविताओं

में भी प्रेम कविता एक महत्वपूर्ण विषय रहा है। उमाशंकर सिंह परमार

उनकी प्रेम कविताओं के बारे में लिखते हैं :- 'प्रेम का विस्तार जरूरी है।

पर प्रेम का विस्तार अमूर्त हो, जमीनी हो। अमूर्तता ही प्रेम को अध्यात्म

से जोड़ती है।' सुधीर सक्सेना जब जमीनी विस्तार देते हैं तो जाहिर है प्रेम

असीम होता है। मतलब प्रेम की कोई सीमा रेखा नहीं रह जाती। तब उसे

किसी संकुचित खांचे में नहीं रखा जा सकता। उन्होंने खुद प्रेम को पारे की

संज्ञा दी है कि वह मुट्ठी में नहीं आता। अब देखिए असीमता और

ससीमता के संदर्भ में उनकी कविता क्या कह रही है

"तुम कविता की पहली पंक्ति हो

मैं उसके बाद का सप्तक

कविता की आखरी पंक्ति का लिखा जाना

अभी शेष है।"

,

इस मायने में सुधीर सक्सेना की प्रेम कविताएं सबसे अलग हैं। कविता

का पक्ष देखकर और उनकी प्रेम संबंधी अवधारणाओं को पढ़कर यह

बात साफ हो जाती है कि सुधीर सक्सेना का प्रेम वो प्रेम नहीं है, जो अब

तक की मान्यताओं में है। वह जनता की संवेदनाओं का प्रेम है। आदमी

को मनुष्य बनाने की प्रक्रिया का प्रेम है। घृणा के खिलाफ सच्चे संघर्ष का

प्रेम है। दोहराव के बरक्स इकहरा अंतरंग प्रेम है। मौत के आदेशों के

सामने जीवन को बचाकर रखने का प्रेम है। उनकी कविता है

"मुझे घृणा के साथ जीना

कबूल था

 

 

बनावटी प्रेम के साथ जीना

हरगिज नहीं

मैं अपने ही घर में

हर पल मरना नहीं चाहता था।"

यहां पर बनावटी या नकली प्रेम को सच्चे प्रेम से अलग दिखाया गया

है। अधिकांश कविताओं में प्रेम लिखा जाता है, पर वो संवेदना का

समुचित विस्तार नहीं ला पाता, उसे बनावटी प्रेम कह सकते हैं। यदि प्रेम

बनावटी हो तो नफरत उससे हजार गुना बेहतर है, क्योंकि वह सच्ची

होगी। यह ईमानदारी है कि कवि नफरतों को बनावटी प्रेम से अच्छा मान

लेता है। कवि की पहली शर्त प्रेम की ईमानदारी है। घर के नाते-रिश्ते

परिवार की नींव का आकार प्रेम होता है। यदि प्रेम बनावटी है तो घर भी

बीहड़ जैसा प्रतीत होता है। वहां लोग होते हैं पर जीवन नहीं होता। रिश्ते

होते हैं, पर विश्वास नहीं होता। अनुभव होते हैं, पर संवेदना नहीं होती।

ऐसे संसार में जीना भी हर पल मरना है। ऐसी मौत से बेहतर घृणा द्वारा दान

दी गई जिंदगी श्रेष्ठ है। सुधीर सक्सेना प्रेम में ईमानदारी चाहते हैं। बनावटी

घड़ियाली आंसू प्रेम का छल है। सुधीर सक्सेना की एक कविता :

"बिल्कुल पारे-सा है प्रेम

पारे-सा चमकीला चपल चंचल

कि पकड़ में ही नहीं आता

चुटकी में, मुट्ठी में।"

सुधीर सक्सेना का प्रेम इतना विस्तार पा जाता है कि धरती का रंग भी

इंद्रधनुषी दिखने लगता है। विस्तारित प्रेम जनचेतना बनता है। वह देह से

पृथक होकर मनुष्यता का प्रबोध देने लगता है। सुधीर सक्सेना का विस्तार

 

धरती और आकाश के बिम्बों से प्रकट होता है। धरती एक ऐसा विस्तार

है, जो मनुष्यता और जीवन का आधार है तो आकाश का प्रतीक प्रेम को

सुख-शांति की मधुरिम छाया आपसी सौहार्द्र का पक्ष लेता है

"मैंने तुम्हें चाहा

तुम धरती हो गई

तुमने मुझे चाहा

मैं आकाश हो गया

और फिर

हम कभी नहीं मिले

वसुंधरा"

ओम भारती उनकी प्रेम कविताओं के बारे में लिखते हैं : "शमशेर ने

प्रेम और स्त्री को एक प्रभावी रंगत में अपनी कविता 'प्रेम' में उभारा है।"

उस कविता का एक हिस्सा उद्धृत कर रहा हूं, जिसमें शमशेर प्रेम से इस

तरह भेंट कर रहे हैं

..

"नींद नहीं तुम

नींद से हालांकि

छा जाते हो मेरे

अवयव अवयव पर

और यह भी स्पष्ट कर रहे हैं कि

काम वासना में तुम प्यार प्रेम

 

 

 

काम वासना नहीं, तीव्र तुम हालांकि मेरे

अनुभव अनुभव में।"

.

तो प्रेम शरीरी भी है और उतना रूहानी भी। जब दुनिया प्रेम को बुहारने

में लगी है, तब सजग कवि उसे बचाए रखने की मुहिम में होगा ही। सुधीर

के पास प्रेम और प्रेम की कविताओं के अक्षुण्ण आकार हैं। वे लिखते हैं:

"ढेर सारी घृणा के बीच बीत गई इतनी सदियां

कि घृणा से ऊब का वक्त पहुंचा है

वक्त पहुंचा है

कि ऐसा वक्त आए

कि सदी भर प्यार में डूबी रहे एक सदी।"

'बीसवीं सदी : इक्कीसवी सदी' नामक चर्चित लंबी कविता में कवि

सुधीर प्रतिगामी ताकतों का हिंसक अभिभाव और उसके लिए अतीत का

बेजा इस्तेमाल देखते हैं, तो बोल उठते हैं :-

"दूसरी सदी ढोती है पहली सदी का दर्द

सदी होने का अर्थ है

अपने ही रक्त से स्नान"

इस लहुलूहान वक्त को सबसे ज्यादा जरूरत है प्रेम की और प्रेम

कविताओं की। सुधीर के सृजन में समय से समर है और मानवीय गुणों का

उत्कर्ष। आदमी होने का हर्ष है तो प्रेम को जीने का परितोष भी। आगामी

पीढ़ियों से भविष्य की निर्मिति होनी है, उन बच्चों से आसमंद प्रीति है इस

रचनाकार की। वे बच्चे सुंदर भोले-भाले खिलौने मात्र नहीं है, उनमें

संघर्षपरकता के अंकुर हैं।

 

लीलाधर मंडलोई उनके कविता-संग्रह 'किताबें दीवार नहीं होती' के

ब्लर्ब में लिखते हैं

:

"शमशेर की बराबरी तो संभव नहीं, किंतु इस परंपरा में यह महत्वपूर्ण

काम है। इसे कविता की दुनिया में अलग से देखने का शऊर बनाना

पड़ेगा, किन्तु इस किताब की बस ऐसी दुनिया में बात होगी जो कवियों से

बाहर की दुनिया है और आत्मीय।'

इस कविता-संग्रह में उन्होंने घनानंद के लिए प्रेम गली नाम से कविता

की रचना की है, जिसकी पंक्तियां इस प्रकार हैं :

"गली इतनी संकरी

कि दो तो क्या

एक भी नहीं गुजर सकता था

उस पार पहुंचना तो दूर

धंसना भी कठिन था

गली में

हम आधे-आधे

गुजरे गली से आर-पार

और इस तरह

हम एक हुए

घनानंद।"

इसी तरह अपने मित्र आग्नेय के लिए 'सदानीरा प्रेम' नामक कविता

की रचना की है, जिसमें प्रेम की महत्ता को आसानी से समझा जा सकता है

 

 

"कहो तो कवि

किसी की सिफलगी पर

कब तक सिर धुना जाए?

सदी की देहरी पर बैठकर क्यों वह

सदानीरा प्रेम की कविता सुनी जाए?"

सीताकांत महापात्र का प्रेम सुधीर सक्सेना के प्रेम से पूरी तरह अलग

है। उनकी कविताओं में आध्यात्मिक प्रेम की आभा दिखाई पड़ती है। मगर

फिर भी कहीं-कहीं प्राकृतिक उपादानों के प्रति ये आकर्षण ही प्रेम का रूप

धारण कर लेता है। उनके यात्रा संस्मरण 'अनेक शरत' में यूगोस्लाविया

की यात्रा करते समय प्रेम के बारे में कुछ पंक्तियां उद्धृत की है

बेलग्रेड का दृश्य डेन्यूब नदी के पास इस मैदान से खूब सुंदर, किसी

चित्र की तरह सजा है। कमर में हाथ डाले युवक-युवतियों के जोड़े बैठे हैं

नदी की ओर मुंह किए सीमेंट की बेंच पर। टी शर्ट पर लिखा है - "AIL

you need is love, Love me.

मेघ बरसने को है - उनकी स्नेह

प्रवणता की तरह। कुछ इविनिंग वॉक पर हैं। नदी किनारे खड़े होकर उस

पार देखने में पता नहीं क्या आनंद है। याद करो तो पता नहीं जीवन में

कितनी बार ऐसे देखा है। बचपन से लेकर कॉलेज छोड़ने तक चित्रोत्पला

नदी का किनारा। बरखा बरस रही होगी बांस के फूल कछार में

खिलखिलाते होंगे, चंद्रकिरणों में बालू चमकदार दिखती होगी - और उस

पार का गांव समाधि मंदिर खो गया होगा - वर्षा की कोमलता चांदनी की

माया अथवा सांझ के मुग्ध ध्यान में। बूंदों की झरी में सिर पर टोपी लगाए

मांझी बैठे होंगे नाव में। फिर इलाहाबाद में पढ़ने के दिनों में रविवार की

रात संगम पर जाते, या फिर फाफामाऊ रेलवे पुल पर जाकर गंगा के उस

पार देखते। बूंदाबांदी हुई कि सब छू। भीगे कुछ जोड़े धीरे-धीरे गायब हो

 

 रहे हैं। कुछ बड़े मजे में जा रहे हैं। मानो इस बूंदाबांदी में भीगने में असीम

आनंद मिल रहा है। यह मेघ ही प्रेम है।

इसी तरह उन्होंने इस यात्रा संस्मरण के अध्याय 'प्रेम और वेदना का

मिश्र राग' में लिखा है कि 27 वर्ष (1814-1841) के जीवन में

लेरमेन्तोव ने सारी प्रसिद्ध रचनाएं अंतिम पांच वर्ष में लिखी। सचमुच

लेरमेन्तोव विश्व साहित्य में विस्मय है। अब इतने कम समय में इतनी कम

उम्र में रूसी साहित्य और विश्व साहित्य को उनका अवदान अविस्मरणीय

है। रूस, विशेषकर काकेशस इलाके में दागिस्तान को कितना प्रेम किया

उन्होंने। प्रेम और वेदना की मिश्रित राग को मैं (सीताकांत जी) खोज रहा

था उनकी मूर्ति की आंखों में। वे दोनों आंखें अपलक दूर टिकी थी

एकबूज शिखर पर। एलब्रूज है बरफ ढकी काकेशस की एक चोटी। ये

आंखें खूब प्रेम में डूबी थी रूस के लिए, दागिस्तान के लिए :

"मैं प्रेम करता

पता नहीं क्यों मैं नहीं जानता

अपने देश की समतल धरती

शीतल नीरवता और उसके असीम अरण्य का कंपन

वन्या में भरपूर नदी की उन्मत्त विशालता

अकूत जलराशि की छलांग...''

मैं प्रेम करता,

दग्ध खेत में धुंधलाए पवन

रात में स्टेप्स की समभूमि पर कतार में

खड़ी बैलगाड़ियों की कतार

अप्रत्याशित आग्रह में मुझे

अनाजभरे कुठल्ले, फूस पुआल की झोपड़ी...

 

 

इन सबमें प्रेम है

प्रेम करता हूं, नक्काशी लिए खिड़की झरोखों से

और छुट्टियों में ओस भींगी आधी रात तक

देखता रहता नाच-गीत उछलकूद, भागदौड़

वोदका पीए किसानों की अस्पष्ट गुंजन

जो शायद संभ्रांत समाज को अच्छा लगे।"

जहां सीताकांत जी प्राकृतिक उपादानों और देश के प्रति अपनी

संवेदनाओं में प्रेम का संधान करते हैं, वहीं सुधीर सक्सेना वर्जनाओं के

टूटन में प्रेम की तलाश करते हैं। इस संदर्भ में सुधीर सक्सेना यथार्थवादी

हैं। रीतिकालीन और छायावादी कविताओं से बिल्कुल अलग कबीर की

परंपरा के प्रेम की तरह अपने प्रेम की स्थापना करते हैं। उनके काव्यांश से

..

"संसार की अधोगति

कि वर्जनाओं में जीता है संसार

संसार में वर्जनाएं हैं इस कदर

कि जीवन मायने वर्जनाएं बेहिसाब

इनका विशुद्ध विलोम हैं प्रेम

ऐन वर्जनाओं के बरजने के क्षण में

शुरू होता है प्रेम।"

यह है सुधीर सक्सेना की प्रेम कविताओं का असली स्वर मूल ध्वनि,

जिसकी गूंज सभी कविताओं में मद्धिम-मद्धिम खनक के साथ विद्यमान है।

ओम भारती के अनुसार कलावादियों के प्रेम में रीतिकालीन कामोद्दीपन

और प्रेम प्रसंग ही प्रथम है। कटि, कुच, केलि और काया ही सब-कुछ है।

 

 

 

इसके पीछे उनकी कुण्ठाएं, ग्रंथियां, विकृतियां और कुटेव हो सकते हैं,

प्रगतिशील कविता में सहज प्रेम खुब है। कविता की मुख्य धारा है, जो

वैचारिकता का निर्वहन और प्रेम की ऊर्जा को एक थोड़ी-सी पंक्तियों में

भरने वाली प्रेम कविता है:

"आसमान में उडूंगा एक दिन

पतंग बन कटने के लिए

कटूंगा और गिर पडूंगा

सारे जमाने को धता बताता

तुम्हारी मुंडेर पर।"

यह पारंपरिकता से पुष्ट किन्तु बगावती अंदाज में प्रेमोच्चार है, जिसे

दुनियादारी की चिंता है और ही कट कर गिर जाने की परवाह। तुम

बनैली हवा नहीं, मेरी अल्हड चिरप्रिया, आक्षितिज धरोहर के विस्तार में

आदि में उत्तम अनुराग बंध हैं। ' प्रिय' कविता की शुरूआत पढ़िए :

"मैं अपने कान वहीं छोड़ आया हूँ

जहां तुम्हारा दिल धड़क रहा है

मेरे होंठ वहीं छूट गए हैं

जहां गुलाबी तितली के पंखों से

तुम्हारे होंठ लहक रहे हैं।"

सीताकांत जी ने आदिवासियों के जीवन पर बहुत काम किया, उनके

युवक-युवतियों के प्रेम गीतों पर भी अपनी कविताएं लिखीं। उनकी एक

कविता 'धांगड़ा का प्रेमगीत' (तीस कविता वर्ष में संकलित) नीचे उद्धृत

 

"पहाड़ की ढलान पर

तुझसे स्नेह मांगा, स्वप्न मांगा

स्पर्श मांगा, तमाख पत्ता मांगा

तूने कहा, यहां नहीं, यहां खेत-खलिहान में बहुत से लोग हैं।"

"झरने के किनारे कोई था

अकेली चिड़िया ही गीत गा रही थी

तुझसे स्पर्श मांगा, अंधेरा मांगा

तूने कहा झरने के स्वच्छ आइने में

सब कुछ दिख रहा है

यहां नहीं, यहां नहीं।"

सारी पृथ्वी सो रही थी

यहां तक कि चांद-तारे भी

तुझसे स्पर्श मांगा, प्राण मांगे

अपनी थुरथुर आत्मा के लिए

तेरे शरीर के घोंसले में इत्ती-सी जगह मांगी

तूने कहा, अंधेरे में भी मेरी आंखों के आइने में

सारा कुछ साफ-साफ दिखता है

अभी नहीं, अभी नहीं।"

तो फिर लो दोनों आंखें निकालकर

तुम्हें भेंट करता हूं

अब स्पर्श दो, स्नेह दो, अंधेरा दो

एकाकी आत्मा का आसरा दो।"

 

 

सीताकांत जी ने आदिवासियों के इन गीतों से मनुष्य की आत्मा के

अंदर छुपे प्रेम के नैसर्गिक भाव को खोजने का प्रयास किया है, चाहे

मनुष्य पढ़ा-लिखा, कम पढ़ा-लिखा, आदिवासी हो या पूरी तरह निरक्षर

क्यों हो, प्रेम का स्रोत अपने आप फूट निकलता है और वह प्रेम उसकी

आत्मा की आवाज बनकर उभरता है।

उसी प्रेम को जीवन अमृत मानने वाला कवि सुधीर सक्सेना भी प्रेम के

अभाव को मरण कहते हैं। मरण जीवन की अनिवार्य परिणति है। प्रेम में

रहे या रहें मरण होना ही है। उनकी कविता की कुछ पंक्तियां द्रष्टव्य हैं

..

"आपने प्रेम किया

तो भी मरेंगे

और नहीं किया

तो भी मरेंगे एक रोज

प्रेम से मौत खारिज नहीं होती

मौत का एक दिन मुअईय्यन है।

प्रेम से बदल जाती है जिंदगी

आमूलचूल।"

यह प्रेम के संबंध में फैली तमाम अतिशयोक्ति वाली आस्थाओं का

जोरदार खंडन है। यह यथार्थ है जबकि भ्रम अयथार्थ का फैलाया जाता

है। सुधीर मानते हैं कि प्रेम से नहीं बदलती मौत की तारीख। अलबत्ता प्रेम

से बदल जाती है जिंदगी। आमूलचूल।

'रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी' सुधीर जी की प्रेम कविताओं को

सहेजे हुए आया था, जिसे पाठकों का अभूतपूर्व प्रेम मिला। शीर्षक में ही

 

जो 'लाइव सीन' है उसमें रात, चंद्रमा, बांसुरी और प्यार का प्राचीन रिश्ता

एक साथ चार आयामों का एकमेक करके फिल्माया प्रतीत होता है।

एक

विद्रोही कवि का रोमान को इतना मान देना विस्मित करता है और सुस्मित

भी। प्रेम ऐसी आस्मिता में पिरोया गया है कि:

"समुद्र में ही नहीं।

जहां-जहां पानी है।

और है नमक।

उठती हैं हिलोर।

वह ईमान का नमक है, जिसमें आकंठ प्रेम की मिठास पसीज उठी है।

कुछ काव्यांश देखिए :

"सुप्रिया साथ है खुले आकाश तले। बारिश में।

बारिश में सचमुच बरसती है शराब''

"दुपट्टे से वह ढांपती है वक्ष। हवा चलती है।

तो सबसे ज्यादा उड़ता है। कमबख्त दुपट्टा।"

...

"सृष्टि के आदि में था। और अंत में होगा सिर्फ प्रेम।"

सीताकांत महापात्र भी प्रेम के उत्कर्ष को अपने कविता-संग्रह 'हथेली

में इंद्रधनुष' में संकलित कविता 'राधा' में राधा-कृष्ण के प्यार की गहराई

को सामने रखने का जो प्रयास किया, ऐसा प्रयास विश्व के गिने-चुने कवि

ही कर सकते हैं। 'राधा' नामक कविता की कुछ पंक्तियां द्रष्टव्य हैं :

"क्या कुछ सीख पाए उस

आदतन झूठे के

अकलन झूठेपन से?

 

एक खुराक ही चखा पाए उसको

उसी के अमृत-विष दवाई से?

गुस्सा शांत हुआ? इच्छा पूरी हुई?

जरूर सफल नहीं हो पाई

क्योंकि तुम तो हो प्रशस्त खुल्लम-खुल्ला

आकाश

जिसकी दुःखग्रस्त गहराई को

सूर्य, चंद्र, तारा

कोई भी नाप नहीं पाएंगे

और उतनी ही है तुम्हारी

मूल्यवान थाती।"

ओम भारती मानते हैं कि सुधीर के लेखे प्रेम ही है सातवीं ऋतु - छहों

ऋतुओं को समाये अपने आप में। जिसमें आदमी आवाज लगा देता है -

'गौर से देखो। मैं जन्मना दिगंबरा।' कवि लहरों के संगीत की लटों में

संगीत गूंथते तैरा करता है। वह अपने समूचे जिस्म से कोरस गा रहा होता

है। उमाशंकर सिंह परमार का मानना है कि सुधीर सक्सेना की प्रेम

कविताओं में चेतना जीवन से जुड़ी है। वह चेतना के साथ सांस या श्वास

का उल्लेख जरूर करते हैं। जीवन से जुड़ाव के कारण उनका पीड़ा बोध

विरह की श्रेष्ठ दशाओं को रेखांकित करने लगता है। इस अस्था में भी

देह से परे होना जीवन से जुड़ा होना उनके विस्तार के अनुरूप है।

"सांसें हैं

चलती हुई लगातार

वही वही सांसें

 

 

कभी उदासी

तो कभी उबासी से भरी हुई।"

देह सांसारिक सत्ता है। देह जब तक अदेह हो जाए प्रेम अपने

मौलिक स्वरूप तक नहीं यात्रा कर सकता है। देह तभी अदेह हो सकती

है, जब आश्रय की अनुभूतियों को अधिक महत्व दिया जाएगा। आश्रय

की अनुभूतियां प्रेम का विस्तार करती है। सुधीर सक्सेना की कविताओं में

रूप चित्रण में भव्य प्रकृति उपकरणों के प्रभाव से मार्मिक चयन विनिर्मित

हो जाता है। वह सहृदय चित्त की ग्राहक संकल्पनाओं से युक्त होकर

भौतिक प्रेम की सर्वोत्तम उदात्तता को प्राप्त होता है। यही कारण है कि प्रेम

अनंत की तरह व्यापक हो जाता है। कालातीत हो जाता है

"सृष्टि के आदि में

सिर्फ प्रेम था

सृष्टि के अंत में

सिर्फ प्रेम होगा

दोनों छोरों के बीच

खड़ा नजर आऊंगा मैं

अविचल।"

प्रेम की यह स्थिति प्रेम को परिपक्व कर समूची धरती के प्रेम में तब्दील

करती है। सीताकांत जी ने सूफी प्रेम के बारे में अपने विचार व्यक्त किए

हैं उनके निबंध संग्रह "New Horizons of Human Progress" में

संकलित निबंध "MasanawiofJelaluddin Rumi : Sufi Poetry

of love and Passion" में।

 

सीताकांत जी के अनुसार सारे धर्मों हिंदू, इस्लाम, सिक्ख और ईसाई

सभी का एक ही उद्देश्य है। अल्टीमेट रियलिटी को प्राप्त करना तथा

जीवन के मुख्य तीन सवालों, मैं कौन हूं? मैं यहां क्यों हूं? तथा मुझे कहां

जाना है? के उत्तर खोजना है। सूफी कविताओं में तीनों का उत्तर एक ही

है-प्रेम। सारे प्रश्नों के उत्तर प्रेम के केन्द्र पर ही खोजे जा सकते हैं। हमारे

समय में जीवन से प्रेम और खुशी लगभग गायब हो गई है, रूमी की

कविताओं की मुख्य थीम उस प्रेम और खुशी को जीवन में फिर से लाना

है। रूमी ने अपने जीवन के सारे दर्शन को निम्न चार पंक्तियों में भर दिया,

जो प्रेम और सांत्वना से वंचित हमारे जीवन में उन्हें भरना है।

"The sun is love, the lover,

A speck circling the sun

A spring wind moves to dance

any branch that is not dead."

हमारी यह पीढ़ी इतनी भी मरी हुई नहीं है कि प्रेम की बसंती हवा से झूम

उठे। सीताकांत जी के मन में अभी भी प्रेम के लिए आशावादिता

बरकरार है।

आधुनिक रचनाकारों का यह दायित्व है कि डर, नफरत तथा निराशा

जैसे नकारात्मक शक्तियों को आशा, प्रेम और शांति जैसी सकारात्मक

शक्तियों से जीता जाए। सीताकांत जी के अनुसार प्रेम 'सुपर नेचुरल' होता

है, जो प्रकृति के मूल नियम के अनुसार जितना तुम दोगे, उतना तुम्हारे

पास कम रहेगा का उल्लंघन करता है। प्रेम में- जितना तुम दोगे, उतना ही

तुम्हारे पास रहेगा - उक्ति चरितार्थ होती है।

अगर हम समय रहते ध्यान नहीं देंगे तो हम भविष्य में अपने बच्चों का

सही मार्गदर्शन नहीं कर सकेंगे। इस कठोर यथार्थता को देखते हुए

 

 

कविताएं अधिक से अधिक लिखनी चाहिए।

सीताकांत जी का मानना है कि आधुनिक कवियों को मानव-प्रेम पर अपनी

सुधीर सक्सेना प्रेम को सातवीं ऋतु मानते हैं, जिसमें देह में हठात

रोमांच उमगता है और मन की डार पर अचानक बौर फूटने लगते हैं। प्रेम

में ताप, शीत, बयार, वृष्टि सब कुछ है। उनके अनुसार जितनी पारस्थितिकी

विषम होती है, उतना ही उद्दाम प्रेम फूटता है। जबकि सीताकांत जी प्रेम को

अध्यात्म का मार्ग मानते हैं, जिससे एक आत्मा पूर्णता की ओर अग्रसर

होनी शुरू होती है और वही प्रेम उसे सुप्रीम पॉवर से मिलाता है।

मध्यकालीन भक्त कवि नरसी मेहता, ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, कबीर,

सूरदास, शुकदेव, माधव देव, ओडिशा के पंच सखा और जगन्नाथ दास

इस प्रेम के विस्तारित फलक हैं। प्रेम तो अमूर्त है। सुधीर सक्सेना विज्ञान

के विद्यार्थी होने के कारण प्रेम की तुलना पारे से करते हैं। प्रेम पारे की

तरह चमकीला, चपल-चंचल है, वह तो पकड़ में आता है, बांधने से

छूट जाता है और छोड़ने से पिघलता है, कभी-कभी बूंद-बूंद बिखर

जाता है तो कभी बूंद-बूंद मिलकर बड़ी बूंद बन जाता है। ओम भारती ने

शब्दों में सदी भर प्यार में डूबी रहे एक सदी की आकांक्षा का वाहक कवि

प्रेम में है। प्रेम उसके लिए बिल्कुल पारे-सा है, भारी प्रदीप्त वर्धनशील

और थरथराता हुआ, तो सुधीर जी का कवि कहे बिन नहीं रह पाता,

"केशनली हुआ जाता हूं मैं

बांधने को उसे

देने ऊंचा कद

नवाकार।

-

विद्रोही प्रेम गिरता नहीं, उठता है,

नये आकार और नवाकार में नया होना ही है।"

 

.

तो सीताकांत जी ने 'डिस्कवरिंग इनस्केप : ऐसेज ऑन लिटरेचर'

निबंध संकलन में संकलित अपने आलेख 'सूफिज्म एण्ड भक्ति :

विंडो ऑन मीडवियल ओड़िया पोएट्री' में वनमाली नामक वैष्णव संन्यासी

की ओडिया कविताओं का मायाधर मानसिंह द्वारा किए गए अंग्रेजी

अनुवाद में प्रेम की लोहे के चिमटे से तुलना की है।

इसी निबंध-संग्रह में सीताकांत जी की प्रेम की अवधारणाओं पर एक

और आलेख 'Love in time of plague' संकलित है। इस आलेख

में उन्होंने कुछ सवाल किए हैं कि कोई किताब या उपन्यास

किसी पाठक के मन- मस्तिष्क पर दोघे समय तक कैसे छाया रहता है?

किस तरह कोई रचना कालजयी हो जाती है? उन्होंने इस दिशा में अल्बर्ट

उनके लिए अविस्मरणीय पात्र है। शायद इसलिए कि वह कामू का

कामू के उपन्यास ' प्लेग' का जिक्र किया है, जिसमें डॉ.बनार्ड रिक्स

प्रतिनिधित्व करता है, जिसे जीवन से बेहद प्यार है, जीवन की विसंगति

और मनुष्य के भाग्य की त्रासदी के बारे में सब कुछ जानते हुए भी। किसी

की शुरूआत

ने ठीक ही लिखा है :

'Inevery death, I am reduced.' मगर आजकल मौत नंबरों का

खेल बनकर रह गया है हर जगह। कितने मरे, सौ दो सौ, चार सौ, मगर

लोगों पर कुछ भी फर्क नहीं पड़ता।प्लेग' उपन्यास में मृत्यु का अर्थ

समझने से पहले एक पिता को अपने बेटे को हर पल तिल-तिल मरते

देखना पड़ता है। अत्यंत ही प्रेम साहस और भाग्य की विडंबना से जूझने

वाला डॉ. बनार्ड रिक्स हमारे त्रासद समय का नाटक है। इस तरह

सीताकांत जी का प्रेम दैहिक होकर ईश्वरीय अवदान है।

साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी कविता-संग्रह “A child

even in Arms of Stone", जिसका संपादन सीताकांत महापात्र जी ने

 

 

किया है, उसमें Federico Mayer की कविता 'लव' भी संकलित है।

यह कविता दूसरे शब्दों में प्रेम की परिभाषा है।

"Is love travelling together

along the way

being companions

along the path

whether straight or twisted

It simply means

being a hand

That lifts up and caresses

being transformed

in a wandering embrace

a guiding hand

man-kind

woman-kind

human-kind"

सीताकांत जी ने अपने अन्य निबंध-संग्रह Beyond the Word

(Multiple Gestures of tradition) में संकलित अपने आलेख 'The

ecstasy of love and community a note on Jagannath Cul-

ture' में यह दर्शाया है कि भगवान में भी मनुष्य की तरह प्रेम होता है।

भगवान की भी मृत्यु होती है, नया कलेवर धारण करते हैं। इंसानों की

तरह हर गतिविधि सोना, उठना, बैठना, घूमना सब कुछ उनमें होता है।

अतः मनुष्य के प्रति प्रेम का अर्थ ईश्वर के प्रति प्रेम का प्रदर्शन ही है।

17वीं सदी के एक भिखारी कवि सारिया भिक की प्रार्थना गीत का अंग्रेजी

अनुवाद है:

'O'my tired mind let us go

and see His round eyes

and bathe our own eyes

in the mandala of the navel of the conch.

इसी तरह आत्मा के उद्दीप्त करने वाले सालवेग का भजन :

He has no hands, no feet

who will keep him tied?

O'thou, mad elephant of blue mountain

Rush in and despoil the lotus- forest of my anguish.

..

भक्त कवि वनमाली तो यहां तक कह उठते हैं :

"O.Jagannath!

I ask nothing of you

Not wealth nor men

I ask only a cubit of your sardha bali"

(Saradha Bali is the bed of the legendery dried

Malini that used to flow between Bada danda and

Gundicha pavilion)

up river

प्रेम जैसे विषय पर दोनों कवियों ने अलग-अलग ढंग से कार्य किया

है। सुधीर सक्सेना और सीताकांत महापात्र जैसे महान कवियों ने अलग-

अलग परिवेश, अलग-अलग संस्कृति और अलग-अलग भाषा के

माध्यम से प्रेम के मूर्त और अमूर्त, भौतिक और अभौतिक, दैविक और

 

आधिदैविक रूपों का विस्तार से वर्णन किया है। दोनों कवियों की

अवधारणाएं अलग-अलग होने के बाद भी मनुष्य मन के धरातलों को

पकड़ने का उनमें अद्भुत सामर्थ्य है। 

 


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